नमस्कार दोस्तों! आज हम बात करेंगे कर्म और कर्म के सिद्धांत (Law of Karma) के बारे में। कर्म यानी कोई भी काम, कोई भी क्रिया। जो हमारे द्वारा की जाती है अथवा हम किसी आशय से उसको करते हैं। चाहे वह जाने में हो या अनजाने में। इसके बारे में आगे जानते हैं:
‘कर्म’ शब्द की उत्पत्ति ऋग्वेद में हुई है , जो सबसे पुराना हिंदू दार्शनिक और धार्मिक ग्रंथ संग्रह है। वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार, कर्म का नियम देवताओं द्वारा प्रकट किया गया था और कांस्य युग के दौरान, लगभग 1500 ईसा पूर्व में ऋग्वेद में लिखा गया था।
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कर्म के प्रकार (Law of Karma: Explanation of Types)
सामान्यतः कर्म को दो भागों में विभाजित किया जाता है। सकाम कर्म और निष्काम कर्म। कर्म का दायरा केवल इतने में ही सीमित नहीं है। कर्म एक व्यापक विषय है। जिसके दो रूप और होते हैं। जो सकारात्मक कर्म और नकारात्मक कर्म कहलाते हैं।
सकाम कर्म (Karma With Selfish Expectations)
सकाम कर्म वे कर्म होते हैं जो किसी कामना के साथ या किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ,किसी इच्छावश किये जाते हैं। आपके उन कर्मों से आपकी कोई स्वार्थ सिद्धि या कार्य सिद्धि होती है। तो वह सभी कर्म सकाम कर्म कहलाते हैं। सकाम कर्मों के पीछे आपकी कोई अपेक्षा छुपी हुई होती है। जिसके हेतु आप वह काम करते हैं।
निष्काम कर्म (Selfless Karma)
निष्काम कर्म वे कर्म होते हैं। जिनके करने के पीछे कर्ता की कोई कामना नहीं होती। कोई उद्देश्य नहीं होता। कोई अपेक्षा नहीं होती। वह सभी काम अपेक्षा रहित, कामना रहित, प्रतिफल (results) की चिंता रहित होते हैं। निष्काम कर्म वर्तमान में सबसे दुर्लभ कर्म माना जा सकता है।
सकारात्मक कर्म (Positive Karma)
सकारात्मक कर्म वे कर्म होते हैं। जिससे समाज को , राष्ट्र को व परिवार को एक नवीन दशा और दिशा प्राप्त होती है। जो हमारी उन्नति में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होते हैं। वह हमें सद्गुण व सदविचार से पोषित करते हैं। साथ ही हमें समाज ,राष्ट्र एवं परिवार के उत्थान में सहायक बनाते हैं। तभी हमारे जीवन की सार्थकता मानी जाती है।
नकारात्मक कर्म (Negative Karma)
नकारात्मक कर्मों से अभिप्राय उन कामों से है। जो न केवल स्वयं को क्षतिग्रस्त करते हैं। अपितु राष्ट्र, समाज व परिवार को भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से क्षति पहुंचाते हैं। इसमें वे सभी कार्य सम्मिलित होते हैं जो अहंकार वश लोभवश, मोहवश अथवा ईर्ष्यावश किए जाते हैं। ऐसे कोई भी कार्य जो किसी को कष्ट पहुंचाने के उद्देश्य से, किसी को अपमानित करने के उद्देश्य से या किसी का अहित करने के उद्देश्य से किए जाते हैं; वे सभी कार्य नकारात्मक कर्म कहलाते हैं।
कर्म का परिणाम (Law of Karma)
कर्म का सिद्धांत (Law of Karma) ही इसी बात पर आधारित है। कि कर्म कैसा भी हो, उसके फल एक न एक दिन आपके समक्ष आकर खड़े हो ही जाते हैं। चाहे वह किसी भी प्रकार के कर्म हों आपको उनके परिणामों का सामना करना ही पड़ता है। जब जीवन में सकारात्मक कर्म सामने आकर खड़ा होता है तो वह जीवन को आध्यात्मिक और उन्नति के मार्ग पर ले जाता है। जिसे अध्यात्म की भाषा में स्वर्ग और सामाजिक भाषा में प्रतिष्ठा कहा जाता है। सकारात्मक कर्म आपके व्यक्तित्व और चरित्र को उत्थान व सद्गति प्रदान करते हैं।
वही जब मनुष्य के नकारात्मक कर्म उसके सामने होते हैं। तो वह अधोगति की ओर ले जाते हैं। जिसे नर्क भी कह सकते हैं। नर्क से तात्पर्य कई प्रकार के लगाए जाते हैं। जैसे – शारीरिक कष्ट ,मानसिक कष्ट, आर्थिक क्षति। जो न केवल मनुष्य को पीड़ित करते हैं अपितु उससे जुड़े लोगों को भी विविध प्रकार से कष्ट पहुंचाते हैं। मनुष्य को अपने सकारात्मक व नकारात्मक कर्मों का परिणाम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से भोगना ही पड़ता है।

गीता का सार (Law of Karma: Summary of Shrimad Bhagwad Geeta)
भगवद्गीता में, चौथे अध्याय में कर्म के बारे में बहुत कुछ बताया गया है तथा कर्म योग के माध्यम से उस तक पहुंचने का तरीका बताया गया है – जहां हमें इस विचार से परिचित कराया जाता है कि इस तरह से कार्य करना जिससे हमें पीड़ा न हो, इस संसार में और अधिक दुख या उलझन पैदा न हो, बल्कि हम एक मुक्त व्यक्ति बन सकें।
कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं। सृष्टि में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। वह या तो विचारों के माध्यम से सक्रिय है अथवा क्रियाओं के माध्यम से या फिर कारण बन कर कर्म में योगदान कर रहा है। जीव-जंतु हों या मनुष्य, कोई भी अकर्मण्य नहीं है और न ही कभी रह सकता है।
गीता के अनुसार जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते। वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है और इसका अनुसरण करने से मनुष्य को शांति तथा यश की प्राप्ति होती है।
कर्म का सिद्धांत निष्कर्ष (Law of Karma: Conclusion)
श्री रामचरितमानस में भी बाबा तुलसी कर्म की प्रधानता पर जोर देते हैं। श्री राम का चरित्र भी यह दर्शाता है कि आप कर्म के न्याय (Law of Karma) से बच नहीं सकते। संतों की वाणी भी यही कहती है कि कर्म को काटना या उसके परिणामों को बदलना मनुष्य के हाथ में नहीं है। जब वर्तमान स्थिति को बदलना मनुष्य के हाथ में ना रहे तब मनःस्थिति को बदलकर जीवन की राह सरल कर लेनी चाहिए।
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