नमस्कार दोस्तों ! आज, इस Supreme Court of India Judgements के इस लेख में बात होगी माननीय सर्वोच्च न्यायालय की, जो कि नागरिकों के मौलिक व संवैधानिक अधिकारों का प्रमुख संरक्षक है। जो समय-समय पर अपने फैसलों से कानून, संसद और समाज को दिशा निर्देश देता है। इस लेख में वर्ष 2024 के कुछ ऐतिहासिक फैसले बताए गए हैं। जो हमारे और आपके जीवन से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं।
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दिव्यांगता अधिकार (राजीव रतूड़ी बनाम भारत संघ 2024 SC 875)
दिव्यांग अधिकारों को बढ़ावा देने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में 8 नवंबर 2024 को चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ , जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने 2005 में दृष्टिबाधित व्यक्ति राजीव रतूड़ी द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला सुनाया। जिसमें केंद्र सरकार को दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 की धारा 40 के तहत अनिवार्य नियम बनाने का निर्देश दिया। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सार्वजनिक स्थान और सेवाएं दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुलभ हो।
चुनावी बॉन्ड योजना
भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल हैं, गुरुवार, 15 फरवरी, 2024 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए चुनावी बांड योजना को रद्द कर दिया।
Supreme Court of India ने चुनावी बांड योजना को रद्द कर दिया और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया, तथा इस बात पर बल दिया कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता अपरिहार्य है।
निगम बनाम नागरिक
इस फैसले में पैसे और राजनीति के बीच गहरे गठजोड़ पर घंटी बजाते हुए कहा गया कि ‘कंपनियों द्वारा किया गया योगदान विशुद्ध रूप से व्यापारिक लेनदेन है, जो बदले में लाभ प्राप्त करने के इरादे से किया जाता है।’ इसने कहा कि इस योजना ने देश में प्रमुख व्यापारिक हिस्सेदारी वाली कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा ‘भारी योगदान’ के प्रवाह की अनुमति दी, जो आम भारतीय – छात्र, दिहाड़ी मजदूर, कलाकार या शिक्षक – के अपेक्षाकृत छोटे वित्तीय योगदान को दबा देता है या यहां तक कि छुपा देता है, जो बदले में किसी भी बड़े उपकार की उम्मीद किए बिना किसी राजनीतिक दल की विचारधाराओं में विश्वास करता है।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ द्वारा लिखित मुख्य राय में कहा गया है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक फंडिंग के स्रोत का पूर्ण रूप से खुलासा न करने से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है, तथा नीति परिवर्तन करने या लाइसेंस प्राप्त करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी के साथ लेन-देन की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है । इसमें कहा गया है कि इस योजना और संशोधनों ने “चुनावी प्रक्रिया में कॉरपोरेट्स के अनियंत्रित प्रभाव” को अधिकृत किया है।
स्वास्थ्य का मौलिक अधिकार
Supreme Court of India ने कहा कि असाध्य रोग से पीड़ित लोगों को उपचारात्मक देखभाल पाने का मौलिक अधिकार है और उसने सरकारी अस्पतालों में ऐसे उपायों को लागू करने के बारे में केंद्र से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है।
जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और लेसर फ़्लोरिकन के संरक्षण से जुडा मामला)
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 5 अप्रैल, 2024 को पहली बार जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार को मान्यता देते हुए कहा कि यह भारतीय संविधान में निहित जीवन और समानता के अधिकार से जुड़ा हुआ है। ये दलीलें भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा ग्रेट इंडिया बस्टर्ड और लेसर फ्लोरिकन के संरक्षण पर एक मामले की सुनवाई के दौरान दिए गए फ़ैसले का हिस्सा थीं।
पीठ ने 2021 में पक्षियों की रक्षा के लिए गुजरात और राजस्थान के कुछ हिस्सों में 99,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में ओवरहेड बिजली लाइनों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के फैसले को पलट दिया। न्यायालय ने कहा कि इतने बड़े क्षेत्र में भूमिगत बिजली ट्रांसमिशन केबल की अनुमति देने से, जिसमें पवन और सौर जैसी स्वच्छ ऊर्जा की भी अविश्वसनीय क्षमता है, देश की स्वच्छ ऊर्जा बदलाव पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा जो इसके जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। ऐसा करने से, यह जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों को बाधित करेगा, जिससे भारतीयों के मौलिक अधिकारों, जैसे जीवन का अधिकार, समानता, ऊर्जा तक पहुंच आदि को खतरा होगा।
यह इस मायने में एक ऐतिहासिक फैसला है कि यह जलवायु शमन की भूमिका को पारिस्थितिकी संरक्षण से स्वतंत्र बताता है।
बुलडोज़र न्याय
सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बुलडोजर न्याय’ की निंदा करते हुए कहा कि कार्यपालिका न्यायपालिका की जगह नहीं ले सकती। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिकारियों को सत्ता का दुरुपयोग करने पर बख्शा नहीं जा सकता। साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि कानूनी प्रक्रिया को किसी अभियुक्त के अपराध के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए।

न्यायालय ने चेतावनी दी कि ऐसे मामलों में कार्यपालिका द्वारा किया गया कोई भी अतिक्रमण मौलिक कानूनी सिद्धांतों को कमजोर करता है। इसने आगे कहा कि अधिकारियों को उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर किए गए कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। इस तरह के मनमाने कार्य, विशेष रूप से न्यायिक आदेश के अभाव में, कानून के शासन को खतरे में डालते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “अधिकारी इस तरह मनमाने ढंग से काम नहीं कर सकते।” न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि आपराधिक कानून में अपराध के आरोपी या दोषी ठहराए गए लोगों को भी सत्ता के संभावित दुरुपयोग से बचाने के लिए सुरक्षा उपाय मौजूद हैं।
बुलडोजर कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्देश:
मुख्य निर्देशों में 15 दिन पहले सूचना देना, ध्वस्तीकरण प्रक्रिया को वीडियो पर रिकॉर्ड करना और मौके की रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना, अन्य कार्रवाइयां शामिल हैं। हालाँकि, ये दिशा-निर्देश तब लागू नहीं होते हैं जब अनधिकृत संरचना किसी सार्वजनिक सड़क, रेलवे ट्रैक या जल निकाय पर स्थित हो या यदि न्यायालय ने ध्वस्तीकरण का आदेश दिया हो, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है।
बाल विवाह पर रोकथाम
Supreme Court ने बोला- बाल विवाह जीवनसाथी चुनने का अधिकार छीनता है:इसे पर्सनल लॉ से नहीं रोका जा सकता; कानून में कई खामियां, अवेयरनेस की जरूरत।
बाल विवाह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 18 अक्टूबर को फैसला सुनाया। CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच 141 पन्नों के फैसले में कहा, हमने बाल विवाह की रोकथाम पर बने कानून (PCMA) के उद्देश्य को देखा और समझा। इसके अंदर बिना किसी नुकसान के सजा देने का प्रावधान है, जो अप्रभावी साबित हुआ।
बाल विवाह निषेध अधिनियम किसी भी ‘पर्सनल लॉ’ की परंपरा से बाधित नहीं हो सकता। ये बच्चाें की स्वतंत्रता, पसंद, आत्मनिर्णय और बचपन का आनंद लेने के अधिकार से वंचित करते हैं। जबरन और कम उम्र में शादी से दोनों पक्षों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हमें जरूरत है अवेयरनेस कैंपेनिंग की।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। याचिका सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन ने 2017 में लगाई थी। NGO का आरोप था कि बाल विवाह निषेध अधिनियम को शब्दशः लागू नहीं किया जा रहा है। कोर्ट ने कहा- ‘बाल विवाह की बुराइयों के बारे में सबको जानकारी होने के बावजूद इसका प्रचलन चिंताजनक है।’
सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह को रोकने के लिए एक विशेष इकाई की स्थापना का भी सुझाव दिया है। अदालत के मुताबिक एक “बाल विवाह मुक्त गांव” पहल की भी शुरूआत की जानी चाहिए। इसके तहत पंचायत और समुदाय के नेताओं को बाल विवाह रोकने और उसकी रिपोर्ट करने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने गृह मंत्रालय को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) के सहयोग से बाल विवाह की ऑनलाइन रिपोर्टिंग के लिए एक पोर्टल बनाने का भी निर्देश दिया है। साथ ही अदालत ने जिला कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों से अपने जिलों में बाल विवाह को रोकने के लिए सक्रिय रूप से काम के लिए भी कहा है। अदालत का कहना है कि उन्हें इसे रोकने की जिम्मेवारी लेनी चाहिए।
दिव्यांगों को मेडीकल शिक्षा का अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ़ शारीरिक विकलांगता होने की वजह से मेडिकल शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक विकलांगता मूल्यांकन बोर्ड की रिपोर्ट न हो कि उम्मीदवार एमबीबीएस पाठ्यक्रम में पढ़ने में असमर्थ है, तब तक उसे मेडिकल शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता। साथ ही, विकलांगता बोर्ड के निर्णय को न्यायिक चुनौती दी जा सकती है।
जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने 40-45% बोलने और भाषा संबंधी विकलांगता वाले स्टूडेंट की MBBS कोर्स करने की याचिका स्वीकार की।
जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखे गए फैसले में कुछ “भारत के शानदार बेटे और बेटियों” का उल्लेख किया गया, जिन्होंने कठिनाइयों का सामना किया और विकलांगता पर काबू पाकर महान उपलब्धियां हासिल कीं।
जस्टिस विश्वनाथन ने लिखा, “इससे पहले कि हम विदा लें, हमें याद दिलाना चाहिए कि प्रशंसित भरतनाट्यम नृत्यांगना सुधा चंद्रन, माउंट एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाली अरुणिमा सिन्हा, प्रमुख खेल व्यक्तित्व एच. बोनिफेस प्रभु, उद्यमी श्रीकांत बोल्ला और ‘इनफिनिट एबिलिटी’ के संस्थापक डॉ. सतेंद्र सिंह भारत के उन व्यक्तियों की लंबी और शानदार सूची में से कुछ हैं, जिन्होंने सभी प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए असाधारण ऊंचाइयों को छुआ।”
मातृत्व अवकाश के अलावा दो वर्ष का बाल देखभाल अवकाश संवैधानिक अनिवार्यता
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मातृत्व अवकाश के साथ-साथ दो साल का बाल देखभाल अवकाश महिला कर्मचारियों का संवैधानिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला हिमाचल प्रदेश की एक सहायक प्रोफ़ेसर शालिनी धर्मानी की याचिका पर सुनाया था। शालिनी के बच्चे को लगातार देखभाल की ज़रूरत थी।
ये टिप्पणी मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने उस समय की जब हिमाचल प्रदेश के एक सरकारी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर और याचिकाकर्ता शालिनी धर्माणी ने शिकायत की कि उनका बच्चा दुर्लभ आनुवंशिक विकार से ग्रस्त है, जिसके लिए कई सर्जरी और निरंतर देखभाल की आवश्यकता है।

धर्माणी ने अपनी वकील प्रगति नीखरा के माध्यम से अदालत को बताया कि उनकी छुट्टियां समाप्त हो चुकी हैं और हिमाचल प्रदेश सरकार ने उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए अवकाश देने से इनकार कर दिया है, क्योंकि राज्य सेवा नियमों में केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) नियम की धारा 43-सी जैसा प्रावधान नहीं है।
हिमाचल प्रदेश में इस तरह के नियम की अनुपस्थिति पर आपत्ति जताते हुए सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी एक विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक संवैधानिक अनिवार्यता है। चाइल्डकैअर लीव महिलाओं को कार्यबल का हिस्सा बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण संवैधानिक उद्देश्य को पूरा करती है। अन्यथा, माताओं के पास अपने जीवन के महत्वपूर्ण चरणों में अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।”
पीठ ने हिमाचल प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित करे, जिसमें समाज कल्याण और महिला एवं बाल कल्याण विभागों के सचिव शामिल हों, ताकि महिला कर्मचारियों को बाल देखभाल अवकाश देने के पूरे मुद्दे पर पुनर्विचार किया जा सके।
इस फ़ैसले के बारे में कुछ और बातेंः
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को बाल देखभाल अवकाश देने से इनकार करना, रोज़गार में महिलाओं के साथ उचित व्यवहार सुनिश्चित करने के संवैधानिक कर्तव्य के ख़िलाफ़ है।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ़ एक विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक अधिकार है।
- सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश सरकार को बाल देखभाल अवकाश के संबंध में अपनी नीतियों की समीक्षा करने का निर्देश दिया।
- हिमाचल प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक, केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) हिमाचल प्रदेश संशोधन नियम, 2024 लागू करने का फ़ैसला किया है।

पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई/विशेष) 17 अप्रैल, 1998
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में 1998 के अपने फैसले को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (अधिनियम) के तहत रिश्वतखोरी के मामलों में विधायकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए दरवाजे खोल दिए।
न्यायालय ने कहा कि रिश्वतखोरी को संसदीय विशेषाधिकारों द्वारा संरक्षण नहीं दिया जाता है और उसने 1998 के अपने फैसले – पी.वी. नरसिंह राव मामले को पलट दिया, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री और अन्य पर अविश्वास प्रस्ताव में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के पक्ष में वोट देने के लिए सांसदों को रिश्वत देने का आरोप लगाया गया था और कहा गया था कि सदन के अंदर दिए गए किसी भी भाषण और/या डाले गए किसी भी वोट के लिए उन्हें आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि संसद सदस्य (एमपी) और विधानसभा सदस्य (एमएलए) किसी खास तरीके से वोट देने या सदन में भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के लिए अभियोजन से छूट का दावा नहीं कर सकते। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105(2) सांसदों को संसद में या किसी संसदीय समिति में कही गई किसी बात या दिए गए किसी वोट के संबंध में अभियोजन से छूट प्रदान करता है। इसी तरह, अनुच्छेद 194(2) विधायकों को सुरक्षा प्रदान करता है।
इस फैसले ने 1998 के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें अदालत ने उन मामलों में छूट के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिनमें सांसद या विधायक संसद या विधानसभा में भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘बाल पोर्नोग्राफी’ देखना, संग्रहीत करना और रखना POCSO अधिनियम के तहत दंडनीय है; मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया।
23 सितंबर 2024 को, मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की एक खंडपीठ ने माना कि नाबालिगों को यौन गतिविधि में लिप्त दिखाने वाली सामग्री को देखना, रखना और संग्रहीत करना यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (‘पोक्सो एक्ट’) के तहत अपराध है। यह फैसला उच्च न्यायालयों के बीच लंबे समय से चल रहे इस सवाल पर मतभेद को खत्म करता है कि क्या ‘बाल पोर्नोग्राफ़ी’ के “मात्र भंडारण” को पोक्सो अधिनियम की धारा 15 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (‘आईटी एक्ट’) की धारा 67 बी के तहत अपराध माना जा सकता है।
विशेष रूप से, इसने एस हरीश बनाम पुलिस निरीक्षक और अन्य (2024) में मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया, जिसने एक पोक्सो आरोपी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को यह पाकर रद्द कर दिया था कि POCSO अधिनियम की धारा 15(1) में कहा गया है कि “कोई भी व्यक्ति, जो ‘बाल पोर्नोग्राफ़ी’ संग्रहीत या रखता है और “इसे मिटाने, नष्ट करने या रिपोर्ट करने में विफल रहता है” उसे पाँच हज़ार रुपये तक का जुर्माना और उसके बाद के अपराध पर दस हज़ार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
धारा 15(2) में कहा गया है कि यदि कब्ज़ा और भंडारण “प्रसारण, प्रचार या प्रदर्शन या वितरण” के इरादे से किया जाता है, तो इसके लिए तीन साल तक की सज़ा हो सकती है। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने माना है कि धारा 15 के तहत अपराध के लिए ऐसी सामग्री वितरित करने या व्यावसायिक रूप से उपयोग करने का इरादा महत्वपूर्ण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 15 की प्रत्येक उपधारा स्वतंत्र अपराध बनाती है। आईटी अधिनियम की धारा 67बी बाल पोर्नोग्राफ़ी के ‘प्रकाशन’ और ‘प्रसारण’ को दंडित करती है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 67बी न केवल बाल पोर्नोग्राफ़िक सामग्री के ‘इलेक्ट्रॉनिक प्रसार’ को दंडित करती है, बल्कि “ऐसी सामग्री के निर्माण, कब्जे, प्रचार और उपभोग” को भी दंडित करती है।
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने ‘बाल पोर्नोग्राफी’ की शब्दावली को खारिज करने और इसके स्थान पर ‘बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री’ शब्द को अपनाने की आवश्यकता के बारे में बात की, जिसे उन्होंने ऐसे अपराधों की वास्तविकता के साथ अधिक सुसंगत पाया। उन्होंने संसद से इन शब्दों को प्रतिस्थापित करने के लिए POCSO अधिनियम में संशोधन करने की सिफारिश की।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने आदेश की घोषणा के दौरान न्यायमूर्ति पारदीवाला को ‘ऐतिहासिक निर्णय’ देने के लिए आभार व्यक्त किया। याचिकाकर्ता के वकील तुरंत सहमत हो गए। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फुल्का ने कहा, “मुझे लगता है कि शायद दुनिया में, यह पहली बार है जब इस पर विचार किया जा रहा है,” और मुख्य ने सहमति व्यक्त की। वे इस तथ्य का उल्लेख कर रहे थे कि दुनिया भर में, अधिकांश देशों में अभी भी स्पष्ट कानून नहीं हैं जो स्पष्ट रूप से ‘बाल पोर्नोग्राफी’ को देखने और रखने को अपराध मानते हैं।
आभार और स्रोत:
इस लेख को तैयार करने में हमने विभिन्न ऑनलाइन लेखों और समाचार स्रोतों का संदर्भ लिया है। इनकी मदद से हमें सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसलों को समझने और सरल भाषा में प्रस्तुत करने में सहायता मिली। नीचे कुछ प्रमुख स्रोतों का उल्लेख है:
- गूगल समाचार (Google News)
- द हिंदू (The Hindu)
- इंडियन एक्सप्रेस (Indian Express)
- लाइव लॉ (Live Law)
- बार एंड बेंच (Bar & Bench)
- अन्य कानूनी और समाचार वेबसाइट्स
हम इन सभी स्रोतों का आभार व्यक्त करते हैं, जिनसे हमें सटीक और प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हुई। हमारा उद्देश्य केवल पाठकों तक जानकारी पहुँचाना है।
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